हर मंडे को टेस्ट हमारा, छिना इस ने रेस्ट हमारा।
संडे को हम पढ़ते रहते, दस–दस घंटे रटते रहते।
खेल हे हमसे कोसों दुर, घर पर रहने को हें मजबुर,
मुश्किल से तो संडे आता, उस दिन भी तो टेस्ट रुलाता।
हम से अच्छा भाई मानव, देखे टि.वी बन कर दानव।
साल में उसकी दो ही परीक्षा, शाम को खेले संग समीक्षा
हरदम तो वह मोज मनाए, ताजा हो कर स्कुल वह जाए।
टेस्ट ने ली खुशी हमारी, कोई न समझे व्यथा हमारी।
कोन हमें मुक्ति दिलवाए, इस झंझट से हमें बचाए।
(चंपक में छपि कविता में मेरे द्वारा किये कुछ बदलावों के साथ)
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